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RATH YATRA (रथ यात्रा)

हिन्दू धर्म में वैसे तो कई त्यौहार मनाये जाते हैं | इन त्योहारों में से एक रथ यात्रा भी है | यह त्यौहार प्रति वर्ष में एक बार मनाया जाता है | यह त्यौहार मुख्यतः ओडिशा के शहर पुरी में मनाया जाता है | इस रथ यात्रा में भगवान बलराम, श्री सुभद्रा और भगवान जगन्नाथ जी की रथ यात्रा निकली जाती है | यह उत्सव १० दिन तक मनाया जाता है | यह त्यौहार यहाँ का सबसे बड़ा त्यौहार माना जाता है और बड़े ही धूम धाम से मनाया जाता है | इस रथ यात्रा के उत्सव में दुनिया के कोने- कोने से लोग इस यात्रा में भाग लेने और भगवान के दर्शन करने के लिए पहुंचते हैं | 
रथ यात्रा पर्व आषाढ़ मास शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि से प्रारम्भ हो कर दशमी तिथि तक मनाया जाता है | वैसे इस रथ यात्रा की तैयारी हर वर्ष बसंत पंचमी से ही शुरू कर दी जाती है | इस तैयारी में मुख्यतः रथ का निर्माण कार्य होता है | रथ यात्रा के लिए चुनिंदा नीम के पेड़ों को काट कर उनकी लकड़ियों से ही रथ तैयार किया जाता है | चुनिंदा पड़े अर्थात जिन पेड़ों में किसी तरह की गंदगी न हो, उसमे किसी तरह की कील या लोहे की धातु न ठोके गए हों | इस रथ यात्रा के निमार्ण के दौरान किसी तरह की धातु अर्थात  कील वगैरह उपयोग नहीं किया जाता है | इस रथ यात्रा के लिए तीन रथों का निर्माण किया जाता है | सबसे आगे भगवान बलभद्र का रथ रहता है जिसमे १४ पहिये होते हैं और यह लाल और हल्के नीले के साथ हरे रंग का होता है | इस रथ को तालध्वज या लंगलध्वज कहते हैं और रथ पर लगे ध्वज को उनानी कहते हैं | उसके बाद भगवान की बहन श्री सुभद्रा जी का रथ होता है जिसमे १२ पहिये होते हैं और यह लाल और काले रंग का होता है | इस रथ को पद्मध्वज या दर्पदलन के नाम से जाना जाता है और इस रथ में लगे ध्वज को नंदबिक़ कहा जाता है | सबसे अंत में गवान जगन्नाथ का रथ होता है जिसमें १६ पहिये होते हैं और यह लाल और पीले रंग का होता है | इस रथ को नंदिघोष या गरुड़ध्वज के नाम से जाना जाता है और इस रथ में लगे ध्वज को त्रैलोक्यमोहिणी कहा जाता है | इन सभी रथों को इनके रंग और इनकी लम्बाई के अनुसार पहचाना जा सकता है | इन रथों को खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचुड़ा कहा जाता है | 
रथ यात्रा प्रारम्भ होने के पहले भी कुछ पारम्परिक रिवाज़ों को पालन किया जाता है | रथ यात्रा प्रारम्भ होने से पहले राजा घराने के वंशज विधिवत ढंग से सोने के हत्थे वाली झाड़ू से भगवान जी के प्रस्थान मार्ग को स्वयं अपने हाथों  से साफ़ करते हैं | इसके बाद पूर्ण मंत्रोउच्चारण, ढोल, नगाड़ों, शंखध्वनि एवं जयघोष के साथ रथयात्रा की शुरुआत की जाती है | इन रथों को भक्तजन अपने हाथों से खीचतें हैं | 

यह यात्रा जगन्नाथ मंदिर के सूर्य द्वार से शुरू होकर पुरी से गुजरते हुए गुंडिचा मंदिर पहुँचती है | यहाँ तीनो रथ सात दिन रुकते हैं और भगवान सात दिन यहाँ आराम करते हैं | यहाँ भगवान दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है | 
गुंडिचा मंदिर को गुंडिचा बाड़ी भी कहा जाता है | इस मंदिर को भगवान की मौसी का घर भी कहा जाता है | कहा जाता है भगवान विश्वकर्मा ने यहीं भगवान की मूर्तियों का निर्माण किया था | 

दसवीं तिथि को ये तीनों रथ पुनः मंदिर की और पप्रस्थान करते हैं | इस वापसी यात्रा को बुहाड़ा यात्रा कहतें हैं | मंदिर पहुचने के बाद उस दिन मूर्तियां रथ में ही रहती है | अगले दिन एकदशी के दिन वैदिक विदिवत मंत्रोचारण के साथ विधिवत स्नान कराकर पुनः मंदिर में स्थापित किया जाता है | 

इस रथ यात्रा उत्सव को मनाने के पीछे कई तरह की मान्यताएं जुडी हुई है उनमे से एक यह है कि भगवान जगन्नाथ की बहन सुभद्रा ने नगर घूमने की इच्छा हुई थी तो उनकी इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से भगवान कृष्णा और बलराम ने अलग रथों में बैठ कर यात्रा निकली थी | तब से उसी स्मृति को ध्यान रखते हुए  हर वर्ष यह यात्रा निकली जाती है | 

एक और मान्यता यह है कि राजा चंद्रदेव जो के भगवान जगन्नाथ के अनन्य भक्त थे और उन्होंने जब गैर हिन्दू महिला से विवाह कर जब इस्लाम धर्म अपना लिया था तो मंदिर में उनका प्रवेश वर्जित हो गया | तो भगवान ने उनको दर्शन देने के उद्देश्य से इस रथ यात्रा को शुरू करने के लिए मंदिर के पुजारी को दर्शन देकर यात्रा शुरू करने का आदेश दिया था | इसका उद्देश्य यही था कि जो लोग भगवान के दर्शन करने के लिए मंदिर के अंदर नहीं जा सकते वो रथ यात्रा के समय उनके दर्शन कर सकें | 
इस रथ को खींचने के पीछे मान्यता यह है कि जो लोग श्रद्धापूर्वक इस रथ को खींचते हैं उन्हें  मोक्ष की प्राप्ति होती है |  लेकिन रथ यात्रा में रथ खींचने का मौका सबको मिल नहीं पता है | 

एक और मान्यता के अनुसार जो लोग इस रथ यात्रा के दौरान भगवन के दर्शन उपरांत रथ गुजरने के बाद उस रास्ते के धूल - कीचड़ में लेटता है उसे भगवन के श्री धाम में स्थान प्राप्त होता है | 

रथ यात्रा के दिन सभी लोग घर या मंदिर में पूजा नहीं करते है इस दिन सब लोग सार्वजानिक एवं सामूहिक रूप से भगवान के दर्शन करके बिना  किसी भेदभाव के पूजा संपन्न करते हैं | 

आज के समय में भारत के अनेक शहरों में ही नहीं अपितु दुनिया के अलगअलग देशों में भी रथ यात्रा निकली जाती है  | 

======= IN ENGLISH =====

Although many festivals are celebrated in Hinduism. One of these festivals is the Rath Yatra. This festival is celebrated once every year. This festival is mainly celebrated in the city of Puri in Odisha. The chariot journey of Lord Balarama, Shri Subhadra and Lord Jagannath ji is carried out in this Rath Yatra. This festival is celebrated for 10 days. This festival is considered to be the biggest festival here and is celebrated with great pomp. In celebration of this Rath Yatra, people from every corner of the world come to participate in this Yatra and see God.
Rath Yatra History

The Rath Yatra festival is celebrated on the second day of the month of Ashada, starting on the second day of the bright fortnight till the tenth day. By the way, preparations for this rath yatra are started every year from Basant Panchami. In this preparation, the work of the chariot is mainly done. For the chariot journey, chariots are prepared by cutting selected neem trees. Selected trees, ie trees that do not contain any kind of dirt, no nail or iron metal has been slashed in it. During the construction of this rath yatra, no metal, ie nail, etc. is used. Three chariots are constructed for this chariot journey. At the forefront is the chariot of Lord Balabhadra, which consists of 14 wheels and it is green with red and light blue. This chariot is called Taladhwaja or Langaladhwaja and the flag on the chariot is called Unani. After that, there is a chariot of Shri Subhadra Ji, sister of God, in which there are 12 wheels and it is red and black in colour. This chariot is known as Padmadhwaj or Darpadalan and the flag in this chariot is called Nandabik. In the end, there is a chariot of Lord Jagannath which has 16 wheels and it is red and yellow in colour. This chariot is known as Nandighosh or Garudadhwaja and the flag in this chariot is called Trilokyamohini. All these chariots can be identified according to their colour and their length. The rope pulling these chariots is called Swarnachauda.
Some traditional rituals are followed even before the rath yatra begins. Before the rath yatra begins, the descendants of the king's house methodically clear the Lord's departure route with their own hands with a gold-handled broom. After this, the Rath Yatra is started with full chanting, dhol, nagaras, shankhdhwani and jayghosh. Devotees draw these chariots with their hands.

The journey starts from the Sun Gate of Jagannath Temple and passes through Puri and reaches the Gundicha Temple. Three chariots stay here for seven days and God rests here for seven days. Here Lord Darshan is called Aadap - Darshan.

Gundicha Temple is also known as Gundicha Bari. This temple is also called the house of the Lord's aunt. It is said that Lord Vishwakarma built the idols of God here.

On the tenth date, these three chariots again reposition the temple. This return journey is called Buhada Yatra. After reaching the temple, the idols remain in the chariot that day. On the next day, on the day of Ekadashi, after bathing the Vidivat with Vedic Vidivata Mantra, it is restored and established in the temple.


There are many beliefs associated with celebrating this Rath Yatra festival, one of them is that Lord Jagannath's sister Subhadra had desired to visit the city, then Lord Krishna and Balarama sat in separate chariots to fulfil their wish. The journey was over. Since then, this yatra is carried out every year with the same memory in mind.

Another belief is that Raja Chandradev, who was an ardent devotee of Lord Jagannath and when he converted to Islam by marrying a non-Hindu woman, was barred from entering the temple. So for the purpose of giving them darshan, the Lord ordered the priest of the temple to start the yatra to begin this chariot journey. Its purpose was that those who could not go inside the temple to see God, they could see them during the chariot journey.
The belief behind pulling this chariot is that those who reverently pull this chariot get salvation. But not everyone gets a chance to draw a chariot in a rath yatra.

According to another belief, people who lie in the dust and mud of the path after passing the chariot after seeing the Lord during this Rath Yatra get a place in the Lord's Dham.

On the day of Rath Yatra, not everyone worships in the house or temple. On this day, everyone worships the public publicly and collectively and performs worship without any discrimination.

In today's time, Ratha Yatra is not only done in many cities of India, but also in different countries of the world.

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